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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 78): जीवन-साधना, जो कभी असफल नहीं जाती
यह दैवी उपलब्धि किस प्रकार संभव हुई। इसका एक ही उत्तर है— पात्रता का अभिवर्द्धन। उसी का नाम जीवन-साधना है। उपासना के साथ उसका अनन्य एवं घनिष्ठ संबंध है। बिजली धातु में दौड़ती है, लकड़ी में नहीं। आग सूखे को जलाती है, गीले को नहीं। माता बच्चे को गोदी तब लेती है, जब वह साफ-सुथरा हो। मल-मूत्र से सना हो तो पहले उसे धोएगी; पोंछेगी। इसके बाद ही गोदी में लेने और दूध पिलाने की बात करेगी। भगवान की समीपता के लिए शुद्ध चरित्र आवश्यक है। कई व्यक्ति पिछले जीवन में तो मलीन रहे हैं, पर जिस दिन से भक्ति की साधना अपनाई, उस दिन से अपना कायाकल्प कर लिया। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, विल्वमंगल, अजामिल आदि पिछले जीवन में कैसे ही क्यों न रहे हों, जिस दिन से भगवान की शरण में आए, उस दिन से सच्चे अर्थों में संत बन गए। हम लोग ‘...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 77): जीवन-साधना, जो कभी असफल नहीं जाती
बालक की तरह मनुष्य सीमित है। उसे असीम क्षमता उसके सुसंपन्न सृजेता भगवान से उपलब्ध होती है, पर यह सशर्त है। छोटे बच्चे वस्तुओं का सही उपयोग नहीं जानते, न उनकी सँभाल रख सकते हैं। इसलिए उन्हें दुलार में जो मिलता है, हलके दरजे का होता है। गुब्बारे, झुनझुने, सीटी, लेमनचूस स्तर की विनोद वाली वस्तुएँ ही माँगी और पाई जाती हैं। प्रौढ़ होने पर लड़का घर की जिम्मेदारियाँ समझता और निबाहता है। फलतः बिना माँगे उत्तराधिकार का हस्तांतरण होता जाता है। इसके लिए प्रार्थना-याचना नहीं करनी पड़ती। न दाँत निपोरने पड़ते हैं और न नाक रगड़नी पड़ती है। जितना हमें माँगने में उत्साह है, उससे हजार गुना देने में उत्साह भगवान को और महामानवों को होता है। कठिनाई एक पड़ती है, सदुपयोग कर सकने की पात्रता विकसित हुई या नहीं?
इस संदर्भ म...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 76): उपासना का सही स्वरूप
गायत्री माता की सत्ता— कारणशरीर में श्रद्धा, सूक्ष्मशरीर में प्रज्ञा और स्थूलशरीर में निष्ठा बनकर प्रकट होने लगी। यह मात्र कल्पना ही तो नहीं है, इसके लिए बार-बार कठोर आत्मपरीक्षण किया जाता रहा है। देखा कि आदर्श जीवन के प्रति— समष्टि के प्रति अपनी श्रद्धा बढ़ रही है या नहीं। इनके लिए प्रलोभनों और दबावों से इनकार कर सकने की स्थिति है या नहीं। समय-समय पर घटनाओं के साथ जोड़कर भी परख की गई और पाया गया कि भावना परिपक्व हो गई है। उसने अपना स्वस्थसाधन श्रद्धा का वैसा ही बना लिया है, जैसा कि ऋषिकल्प साधक बनाया करते थे।
गायत्री माता मात्र स्त्रीशक्ति के रूप में छवि दिखाती हैं। अब प्रज्ञा बनकर विचार संस्थान पर आच्छादित हो चलीं। इसका जितना बन पड़ा, विश्लेषण किया जाता रहा। अनेक प्रसंगों पर हमने परखा भी है क...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 75): उपासना का सही स्वरूप
हमें ऐसा ही करना पड़ा है। भगवान की उपासना गायत्री माता का जप और सविता पिता का ध्यान करते हुए करते रहे। भावना एक ही रखी है कि श्रवण कुमार की तरह आप दोनों को तीर्थयात्रा कराने के आदर्श का परिपालन करेंगे। आपसे कुछ माँगेंगे नहीं, आपके सच्चे पुत्र कहला सकें, ऐसा व्यक्तित्व ढालेंगे। आपकी निकृष्ट संतान जैसी बदनामी न होने देंगे।
ध्यान की सुविधा के लिए गायत्री को माता और सविता को पिता माना तो सही, पर साथ ही यह भी अनुभव किया कि वे सर्वव्यापक और सूक्ष्म हैं। इसी मान्यता के कारण उनको अपने रोम-रोम में और अपना उनकी हर तरंग में घुल सकना संभव हो सका। मिलन का आनंद इससे कम में आता ही नहीं। यदि उन्हें व्यक्तिविशेष माना होता तो दोनों के मध्य अंतर बना ही रहता और घुलकर आत्मसात् होने की अनुभूति होने में बाधा ही बनी...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 74): उपासना का सही स्वरूप
समझा जाना चाहिए कि जो वस्तु जितनी महत्त्वपूर्ण है, उसका मूल्य भी उतना ही अधिक होना चाहिए। प्रधानमंत्री के दरबार का सदस्य बनने के लिए पार्लियामेंट का चुनाव जीतना चाहिए। उपासना का अर्थ है— पास बैठना। यह वैसा नहीं है, जैसा कि रेलगाड़ी के मुसाफिर एकदूसरे पर चढ़ बैठते हैं, वरन् वैसा है, जैसा कि दो घनिष्ठ मित्रों को दो शरीर एक प्राण होकर रहना पड़ता है। सही समीपता ऐसे ही गंभीर अर्थों में ली जानी चाहिए। समझा जाना चाहिए कि इसमें किसी को किसी के लिए समर्पण करना होगा। चाहे तो भगवान अपने नियम, विधान, मर्यादा और अनुशासन छोड़कर किसी भजनानंदी के पीछे-पीछे नाक में नकेल डालकर फिरें और जो कुछ भला-बुरा वह निर्देश करे, उसकी पूर्ति करते रहें; अन्यथा दूसरा उपाय यही है कि भक्त को अपना जीवन भगवान की मरजी के अनुरूप बनान...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 73): उपासना का सही स्वरूप
भूल यह होती रही है कि जो पक्ष इनमें सबसे गौण है, उसे ‘पूजा-पाठ’ की उपासना मान लिया गया और उतने पर ही आदि-अंत कर लिया गया। पूजा का अर्थ है— हाथों तथा वस्तुओं द्वारा की गई मनुहार, दिए गए छुट-फुट उपचार, उपहार। पाठ का अर्थ है— प्रशंसापरक ऐसे गुणगान, जिसमें अत्युक्तियाँ ही भरी पड़ी हैं। समझा जाता है कि ईश्वर या देवता कोई बहुत छोटे स्तर के हैं। उन्हें प्रसाद, नैवेद्य, नारियल, इलायची जैसी वस्तुएँ कभी मिलती नहीं। पावेंगे तो फूलकर कुप्पा हो जाएँगे। जागीरदारों की तरह प्रशंसा सुनकर चारणों को निहाल कर देने की उनकी आदत है। ऐसी मान्यता बनाने वाले, देवताओं के स्तर एवं बड़प्पन के संबंध में सर्वथा बेखबर होते और बच्चों जैसा नासमझ समझते हैं, जिन्हें इन्हीं खिलवाड़ों में फुसलाया-बरगलाया जा सकता है। मनोकामना पूरी क...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 72): महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
उचित होगा कि आगे का प्रसंग प्रारंभ करने के पूर्व हम अपनी जीवन-साधना के— स्वयं की आत्मिक प्रगति से जुड़े तीन महत्त्वपूर्ण चरणों की व्याख्या कर दें। हमारी सफल जीवनयात्रा का यही केंद्रबिंदु रहा है। आत्मगाथा पढ़ने वालों को इस मार्ग पर चलने की इच्छा जागे; प्रेरणा मिले, तो वे उस तत्त्व दर्शन को हृदयंगम करें, जो हमने जीवन में उतारा। अलौकिक रहस्य-प्रसंग पढ़ने-सुनने में अच्छे लग सकते हैं, पर रहते वे व्यक्तिविशेष तक ही सीमित हैं। उनसे ‘हिप्नोटाइज’ होकर कोई उसी कर्मकांड की पुनरावृत्ति कर हिमालय जाना चाहे, तो उसे कुछ हाथ न लगेगा। सबसे प्रमुख पाठ जो इस कायारूपी चोले में रहकर हमारी आत्मसत्ता ने सीखा है, वह है— सच्ची उपासना, सही जीवन-साधना एवं समष्टि की आराधना। यही वह मार्ग है, जो व्यक्ति को नरमानव से देवमानव...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 71): मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
यह रहस्यमयी बातें हैं। आयोजन का प्रत्यक्ष विवरण तो हम दे चुके हैं। पर जो रहस्यमय था, सो अपने तक सीमित रहा है। कोई यह अनुमान न लगा सका कि इतनी व्यवस्था, इतनी सामग्री कहाँ से जुट सकी। यह सब अदृश्य सत्ता का खेल था। सूक्ष्मशरीर से वे ऋषि भी उपस्थित हुए थे, जिनके दर्शन हमने प्रथम हिमालय यात्रा में किए थे। इन सब कार्यों के पीछे जो शक्ति काम कर रही थी, उसके संबंध में कोई तथ्य किसी को विदित नहीं। लोग इसे हमारी करामात-चमत्कार कहते रहे। भगवान साक्षी है कि हम जड़भरत की तरह— मात्र दर्शक की तरह यह सारा खेल देखते रहे। जो शक्ति इस व्यवस्था को बना रही थी, उसके संबंध में कदाचित् ही किसी को कुछ आभास हुआ हो।
तीसरा काम जो हमें मथुरा में करना था, वह था— गायत्री तपोभूमि का निर्माण। इतने बड़े कार्यक्रम के लिए छोटी इ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 70): मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
गायत्री परिवार का संगठन करने के निमित्त, महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के बहाने हजार कुंडी यज्ञ मथुरा में हुआ था। उसके संबंध में यह कथन अत्युक्तिपूर्ण नहीं है कि इतना बड़ा आयोजन महाभारत के उपरांत आज तक नहीं हुआ।
उसकी कुछ रहस्यमयी विशेषताएँ ऐसी थीं, जिनके संबंध में सही बात कदाचित् ही किसी को मालूम हो। एक लाख नैष्ठिक गायत्री उपासक देश के कोने-कोने में से आमंत्रित किए गए। वे सभी ऐसे थे, जिनने धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण का काम हाथों-हाथ सँभाल लिया और इतना बड़ा हो गया, जितने कि भारत के समस्त धार्मिक संगठन मिलकर भी पूरे नहीं होते। इन व्यक्तियों से हमारा परिचय बिलकुल न था। पर उन सबके पास निमंत्रण-पत्र पहुँचे और वे अपना मार्ग-व्यय खरच करके भागते चले आए। यह एक पहेली है, जिसका समाधान ढूँढ़ पाना कठिन है।
दर्शकों...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 69): मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
प्रारंभ में मथुरा में रहकर जिन गतिविधियों को चलाने के लिए हिमालय से आदेश हुआ था, उन्हें अपनी जानकारी की क्षमता द्वारा कर सकना कठिन था। न साधन, न साथी, न अनुभव, न कौशल। फिर इतने विशाल काम किस प्रकार बन पड़े? हिम्मत टूटती-सी देखकर मार्गदर्शक ने परोक्षतः लगाम हाथ में सँभाली। हमारे शरीर भर का उपयोग हुआ। बाकी सब काम कठपुतली नचाने वाला बाजीगर स्वयं कराता रहा। लकड़ी के टुकड़े का श्रेय इतना ही है कि तार मजबूती से जकड़कर रखे और जिस प्रकार नाचने का संकेत हुआ, वैसा करने से इनकार नहीं किया।
चार घंटे नित्य लिखने के लिए निर्धारण किया। लगता रहा कि व्यास और गणेश का उदाहरण चल पड़ा। पुराण-लेखन में व्यास बोलते गए थे। ठीक वही यहाँ हुआ। आर्षग्रंथों का अनुवाद-कार्य अतिकठिन है। चारों वेद, 108 उपनिषदें, छहों दर्शन, चौब...